आचार्य जानकी वल्लभ शास्त्री ने छायावाद युग से ही न केवल हिंदी में अपितु
संस्कृत में भी काव्य रचना आरंभ की थी। उनके काव्य में प्रणय और भक्ति का
गंगा-यमुनी प्रवाह है।
'राधा' उनकी सात पर्वो में विभाजित एक विशिष्ट महाप्रबंध गीत काव्य है। जो
निम्न हैं -
i.
प्रणय पर्व
ii.
पुरुषार्थ पर्व
iii.
दर्शन पर्व
iv.
विनोद पर्व
v.
निर्वेद पर्व
vi.
प्रभास पर्व
इस कृति के प्रतिपाद्य हेतु एवं शिल्प का विस्तृत विवेचन शास्त्री जी ने 22
पृष्ठों की लंबी भूमिका में किया है -
''नीली री मुरली ! तूने मुझे पुकारा?
क्या करूँ कि मेरा तन हारा, मन हारा।1
वहीं दूसरी ओर 'राधा' का निस्सीम - क्षितिज-यात्री सुदूर संचारी मौन पहाड़ की
फिसलन भरी ढलान को पार करने के क्रम में हलकोरा गया है -
''रोके न रुके, ऐसा प्रवाह दुर्दम है
इस निविड़ राग का कहाँ सुगम सरगम है''2
कृष्ण और राधा का प्रेम संदर्भ भारतीय वाड.मय में अनेक रूपों में चित्रित हुआ
है। अलौकिक प्रसंगों में 'राधा' प्रणय का प्रतीक ही नहीं एक महाभाव मानी जाती
रही है। इस कृति में 'शास्त्री' जी ने 'राधा' के अंतर्द्वंद्वों के माध्यम
से इस एकनिष्ठ प्रणयवती नारी का अंतर्मन खोलकर रख दिया है। दीप सम दमकते रूप
पर जलनेवाली, गगन में चमकती ज्योति पर बुझनेवाली और जल-बुझ कर पूजा करने वाली
'राधा' गहराते अंधकार में जगभर के दोषों से मंडित रहकर भी तन में मन रखती हुई
भी मन को अनिकेत पाती है।3
युग पर युग बीते रीता अंतर ढोते,
उन्निद सीप में गीले मोती बोते।
साँसों को झंझा में दीपक प्राणों का
आल-पट डाल सँभाले, कुल-मानों का
लेखा-जोखा लेते हलचल को बाँधे,
युग पर युग बीते विसुध चेतना साधे।4
'राधा' न तो मोहन के महामोह को काट पाती है और न ही लौकिक मर्यादाओं वाला समाज
उसे जीने देता है तब उसकी स्थिति इसके अतिरिक्त क्या हो सकती थी -
मैं पंख कटी विहगी, आँधी की कदली
अध जली पंतगी, मरु-तट उछली मछली
जीने दे रहा समाज न वृंदावन का
मरने न दे रहा महामोह मोहन का।5
'राधा' आचार्य श्री की साहित्य साधना का राशिभूत रूप है तथा रचना और रचनाकार
की प्रौढ़ता की व्यंजना है। आचार्य श्री के भीतर की साधना एक आकार पा गई है,
वह आकार जिसमें विस्तार के साथ-साथ गहराई भी पर्याप्त मात्रा में परिलक्षित
होती है, कवि के आंतरिकता की अनुगूँज बाहर भी स्पंदित हो रही है। राधा काव्य
कृति से अधिक साधना की आकृति के रूप में अधिक परिलक्षित प्रतीत होती है -
जो राधा को पहचान रहा ज्वाला से
वह पहचानेगा उन्हें, तिलक, माला से।
समकालिक जन का जलन भरा आलोचन
अब मूँद सकेगा मेरा अंतलोचन। 6
साहित्य को शाश्वत धारा में जब भी राधा और कृष्ण के अरुण को रूप में जोड़ने
का प्रयास किया गया है, मंत्र कविता में ढल गया है और संवेदना से जुड़कर
हृदय-वीणा के तारो से नया सरगम फूट निकला है।
श्रुति से सुन, मन से मनन करेगा कोई,
चढ़ ध्यान-विमान अनंत तरेगा कोई,
तन-मन, गंगा-यमुना, सरस्वती आत्मा,
तट शुक्ल, कृष्ण, लोहित, तटस्थ परमात्मा 8
राधा एक महान कलाकृति है जो निश्चित ही पूर्व निर्मित किसी साँचे में नहीं ढली
है, मेघ मालाओं की तरह, किंतु अपने आप में वह एक अनूठा साँचा अवश्य है जिसके
रचना शिल्प का अनुकरण किसी भी महान कृति के लिए कदाचित असंभव न भी हो।
राधा द्वंद्व के हिंडोले पर चढ़ी है जहाँ प्रियतम है, प्रेम वहीं खीचता है,
लज्जा बरजती है कि उधर तमस है, प्राण मन का मान मिटा देना चाहते हैं, पर मन
है कि प्राणों की परछाईं बन गया है, कौतुक काँटों में खिलने का उत्साह भरता
है। शील इस उत्साह को पागलपन का दर्जा देता है उसका एक मन भवन में है तो
दूसरा मधुवन में, अपनी इस विषय स्थिति पर वह कुपित होती है -
अब उखड़े-उखड़े से स्तर-स्तर अंतर के,
मै तो जीती पल-छिन, गिन-गिन, मर-मर के।
प्रिय-मिलन-भीख निष्ठुर जग से मत माँगे,
हूँ - सावधान - ये प्राण निकल मत भागे। 9
बाँवरी बीन ने राधा के हरिण-मन को अवश कर दिया है। बाँसुरी जैसे पूरे ब्रज के
रज कण को अपने रंध्रों में भरकर आँधी उठाती है और राधा का अंतर उड्डीन हो जाता
है। उसके पाँव घर से आँगन, आँगन से द्वारा और द्वार से न जाने कहाँ तक बढ़
जाते हैं। पंख रुकने दें तब जो खंजन रुके। राधा की स्वीकृति में विवशता और
मासूमियत का अनोखा मेल है -
कोई कैसे रुकता, ऋतु भी रुकने को ?
ऊँचे मन को चिंता सिर के झुकने की ?
रुकने को स्थिति में, साँस नहीं रुक जाती ?
बाँसुरी मरी जाती थी गाती-गाती। 10
राधा में समकालीन महान-जीवन की गहन-जटिल वास्तविकता को व्यंजित करते हुए
उससे उबरने की शोषण उत्पीड़न से मुक्ति की अकांक्षा के अप्रतिम काव्य चित्र
उकेरे गये है आज एक ओर सभी नैतिक आदर्शों-सिद्धांतों की बलि चढ़ाकर सत्ता के
शीर्ष पर बैठे मदांध लोग जन सेवा की आड़ में जन शोषण और उत्पीड़न में संलग्न
हैं।11 'राधा' में कृष्ण की उक्तियों और कर्मशीलता में मनुष्य की
शक्ति और सीमा दोनों समान रूप में व्यंजित हुई हैं। ब्रज के गोपी-ग्वालों के
साथ उसकी सुषमा भूमि में मनोहारी लीला करने वाले प्रेममूर्ति कृष्ण का यह
संवेदन पूर्ण द्वंद्व अनायास ही हमारे मन-प्राणों को छू लेता है -
किंतु मैं कितना विवश असमर्थ हूँ
दूसरे के अर्थ हूँ यों व्यर्थ हूँ।
त्यागना होगा मुझे अत्याज्य को,
बाँटना होगा हृदय-अविभाज्य जो। 12
अतः 'राधा' के बारे में कहा जा सकता है कि 'आचार्य जानकी वल्लभ शास्त्री' का
सात पर्वों (खंडों) में एक नए चिंतन को आधार बनाकर सृजित यह एक विशिष्ट
प्रबंध गीति काव्य है। इसके सातों सर्गअपने में स्वतंत्र सर्ग होते हुए भी
फलक पर एक दूसरे से संबद्ध हैं।
संदर्भ-ग्रंथ
1.
राधा (एक) - आचार्य जानकी वल्लभ शास्त्री - 1
2.
वही
3.
आचार्य जानकी वल्लभ शास्त्री की साहित्य-साधना, भाग-1, पृ. 86
4.
आचार्य जानकी वल्लभ शास्त्री - राधा (एक), पृ. 63
5.
वही - पृ. 10
6.
वही - पृ. 62
7.
आचार्य जानकी वल्लभ शास्त्री की साहित्य साधना भाग - 1, संपादक डॉ.
सुरेंद्र नाथ दीक्षित, डॉ. राम प्रवेश सिंह, डॉ. राजेश्वर प्रसाद सिंह, पृ.
303
8.
आचार्य जानकी वल्लभ शास्त्री - राधा (एक), पृ. 103
9.
आचार्य जानकी वल्लभ शास्त्री की साहित्य साधना भाग - 1 संपादक डॉ. सुरेंद्र
नाथ दीक्षित, डॉ. राम प्रवेश सिंह, डॉ. राजेश्वर प्रसाद सिंह, पृ. 516
10.
आचार्य जानकी वल्लभ शास्त्री - राधा (एक), पृ. 41
11.
आचार्य जानकी वल्लभ शास्त्री की साहित्य साधना, भाग- 2, संपादक -
मारुतिनंदन पाठक, पृ. 107
12.
आचार्य जानकी वल्लभ शास्त्री : समकालीनों की दृष्टि में, संपादक -
मारुतिनंदन पाठक, पृ. 308